नियम निर्धारण के किए साहित्य शास्त्र की रचना उचित नहीं जान पड़ती और न
ही स्वाभाविक ही है ।साहित्य की वेगवती सरिता नियमों की अवहेलना कर
स्वछंदतापूर्वक बहने में ही प्रसन्न रहती है । साहित्य संबन्धी
शास्त्रकार को अनधिकार चेष्टा नहीं करनी चाहिए । उसका यह कार्य नहीं है
कि वह सरिता के बहाव के सामने बॉध बॉधने की चेष्टा करें । उसे चाहिए कि वह
उस प्रवाह के दर्शन करें ,सुगम्य नौका द्वारा उसमें विहार करे, उसके
बॅधें हुए घाटों तथा तट की शोभा का आनंद ले ।
बिलकुल सही
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