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सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

'अहिल्या से अनूसुइया तक'    --  (कहानी)

 डॉ. संध्या तिवारी ,पीलीभीत


मेरी भी शादी किसी बडे शहर के राजकुमार से होगी ।"
मै कहती ; " तुझे कैसे पता ?
तो वह कहती ; " अरे ! देख मै कित्ती सुन्दर हूं , मेरी आंखे हेमामालिनी सी कटीली है कि नही। मेरे कमर से नीचे लहराते काले बाल और सबसे बडी बात मैने आंठवां भी तो पास कर लिया है ।
उसकी भोली बाते सुन मै मुस्कुरा पडती।
           सच में उसके जीवन का बहुत बडा सपना ही शादी था । क्योकि शादी ही एकमात्र उसके गांव से निकलने का रास्ता थी ।
       गोबर , मिट्टी , भूसा , सानी , अनाजों की कोठरी , गुड ,राव , ढोर- डंगर से पीछा छुडाने का यही एक मात्र और अंतिम उपाय उसे दीखता था।
          जब वह छोटे से शीशे में अपने नैन नक्श निहारती तो खुद पर मोहित हो जाती , और मुझ से कहती ;  " देखना , मेरे दुल्हे की एक रात भी मेरे बिना नही कटेगी। " और अपने सुडौल हाथो  को अपने ही इर्द-गिर्द लपेटती किसी राजकुमार  की अंकशायनी की कल्पना में तल्लीन हो जोर से हंस पडती ।
मै उसे चिकोटी काटती हुई कहती कोई और से सपने भी देख लिया करो महारानी ।
लेकिन मेरी सहेली का जीवन ही जैसे "राम की आस में अहिल्या " सा तब्दील हो गया था।
उसका ओढना बिछाना एक ही था ।उसके सपनों का राजकुमार , राजकुमार और राजकुमार ।
      आज उसकी शादी की पचासवीं साल गिरह है । इस मौके पर उसने मुझे भी बुलाया ।
        उसने झुर्री दार हाथों में मेंहदी लगायी थी। माथे पर बडी सी शिल्पा बिन्दी लगायी । आंखो में काजल डाला । होठो पर  पिंक लिप्सटिक लगायी । सिल्क की साडी के साथ मैचिंग चूडिया पहनी। और फिर पत्थर सा भाव विहीन चेहरा लिये  डिमनेशिया के शिकार पति का हाथ पकड़ कर उस सोफे पर जा बैठी जो उसके लिये तैयार किया गया था।
             मेरी नजरें उसकी शिल्पा बिन्दी पर अटक कर रह गयीं।मन ने कहा यह वह सुधा तो नहीं,  जिसे मै जानती थी ,जो मेरी बचपन की गंवार सहेली हुआ करती थी । वह तो ऐसी  ग्रामीण महिला थी कि सिन्दूर के बिना उसका श्रृंगार ही पूरा नही होता था , लेकिन आज तो सिन्दूर कहीं छू भर नहीं गया। खैर....
इतने सालो में उसके साथ बहुत कुछ घट भी तो गया ।और समय तो अच्छे अच्छों को बदल देता है तो सुधा क्या चीज है भला ।
यह सोच कर मैं बरबस ही अतीत में खिची चली गयी
          बचपन के वे दिन भी क्या दिन थे जब सुधा और मै हम दोनो गांव में पीपल के पेड के नीचे खेलते थे , और बरसात की शामो में जुगनू पूरे पीपल को ऐसे जगमग कर देते थे- जैसे शहर की शादियों में सजा कोई बेंकेट हाल ।
सुधा बडे भोलेपन से मुझसे  पूछती ;      
  " उमा यह सारे जुगनू यहां ही क्यों जमा हुये है?"
और मैं अपना रोब जमाने के लिये कहती ; " यह सब सजावट के लिये भगवान के घर से भेजे गये है ।
परियों  की बारात जो है न ।
यहां रोज एक परी की शादी होती है । और बाकी परियां यहां नाचती है ।
लेकिन उन्हे पसन्द नहीं कि कोई इन्सान उनका उत्सव देखे ।
और जो कोई जान-बूझ कर देखता है , उसकी शादी नही होती , जिन्दगी भर। इसलिये वह सब बहुत रात गये यहां आतीं है ।
और सबेरे तडके यहां से चली जाती है । "
          मैने डर से उसकी  चौडी हुयी आंखो में थोडा और डर झोंकते  हुये  राज की बात बताई। 
       "तुम भूल कर भी मत देखना , क्योंकि तुम्हारा घर तो ठीक पीपल के सामने ही पडता है।"
    जब से मैने यह राज उसे बताया था तब से बिना किसी वाद प्रतिवाद के वह हर रोज सांझ ढले  दौड कर अंदर चली जाती और बाहर खुलने बाली सब खिडकी दरवाजे बन्द कर लेती।
           सुबह जब मै उससे पूंछती तो वह बडे मासूम अंदाज में सिर हिला कर कहती ; "न आं सुधा मैने तो झिरी तक से नहीं झांका।
        मै उसकी बेबकूफी पर उसे शाबाशी देती और वह इसे अपनी तारीफ समझ कर खुश हो जाती ।
               उसे बुद्धू बना कर मुझमे एक आत्मविश्वास  भर जाता और मै खुद को उससे ज्यादा काबिल समझ आत्म मुग्ध हो जाती।
            हमारी  शादियो में करीब आठ साल का अन्तर था ।क्योकि वह गांव मे ही रही और गांव के स्कूल से  आठवां पास किया ।फिर सत्रह साल मे उसकी शादी भी हो गयी ।
            उसकी नयी नयी शादी थी उसे सजने संवरने का भी बहुत शौक था ।
              यूं तो हम भारतीय हिन्दू स्त्रियां सिन्दूर का इस्तेमाल सुहाग चिन्ह के लिये  किसी न किसी रुप में करते ही है लेकिन जब से उसने किसी  पंडित के मुख से यह कथा सुनी कि -
              " एक बार सीता माता मांग मे सिन्दूर भर रही थी , तो हनुमान जी बहां पधारे । उन्होने सीता जी से पूछा ;
" माता आप सिन्दूर क्यो लगाती है ?
तो सीता जी ने उत्तर दिया ;  " पुत्र यह सिन्दूर मेरे स्वामी श्री रामचन्द्र जी को बहुत पसन्द है । जब मै इसे लगाती हूं तो वह मुझ पर परम प्रसन्न होते है इसलिये मै इसे लगाती हूं ।
और जो भी सुहागिल स्त्री सिन्दूर लगाती है उससे उसके पति परम प्रसन्न होते है।
यह वाक्य शायद पंडित जी ने खुद जोडा होगा ।खैर जो भी हो....
         यह बात हनुमान जी और हमारी सुधा ने शायद समान रूप से सुनी समझी।
ऐसा कहा जाता है -
कि हनुमान जी उसी क्षण से पूरे बदन मे सिन्दूर पोतने लगे ।
और हमारी सुधा ने तो सिन्दूर लगाने और श्रृंगार करने का नया अविष्कार ही कर डाला।
                हर माल पांच रुपये बाली लिपिस्टिक की पेंदी घुमा कर  पहले लिपिस्टिक  निकालती , फिर मीडियम साइज की कील की टाॅप उस लिपिस्टिक पर कस कर रगडती , जब कील के टाॅप पर लिपिस्टिक पुत जाती , तब वह कील की टाॅप अपने माथे के बीचोबीच लगाती , जब माथे पर लिपिस्टिक का गोल ठप्पा लग जाता ,तब सूखे हुये सिंदूर में  कील की टाॅप डुबो कर  माथे पर लिपिस्टिक के ठप्पे के ऊपर पूरती ।
ऐसे बनती थी उसकी सुहाग की टिकुली।
            उसके बाद उसी कील के नुकीले हिस्से से सिर के अगले भाग से लेकर आधे सिर की मांग चमकीले लाल सिन्दूर से भरती ।
"कहती इससे पति की उमर लम्बी होती है।"
          एक बार मैने कहा ; " सीधे बिन्दी ही क्यों नही लगाती ? "
तो उसने कहा ; " न जी , सिन्दूर की ही बिन्दी लगाने से पति प्यार करता है ऐसा तो सींता मंइयां ने भी कहा और
बडी बूढी  भी कहती है ।
और फिर फिक्क से हंस पडी।
काजल लगाने का भी उसका निराला अंदाज था।
    बडी बडी आंखों में काजल भी ऐसे लगाती जैसे  हेमामालिनी के काजल सी रेखें उसके भी आँखो के बाहर निकले ।
            इसके लिये वह पहले तर्जनी अंगुली में काजल भर कर आंखो में लगाती फिर कंघे की नोक से आँखो के बाहर की लकीरें खींच कर दोचार मिनट चेहरा दांये बांयें करके शीशे में निहारती।
      सिन्दूर काजल के बाद बारी आती होठ रंगने  की।
       तो जिस लिपिस्टिक को सिन्दूरी टिकुली लगाने के लिये वह गोंद सा इस्तेमाल करती , उसी लिपिस्टिक को तर्जनी पर रगड कर होठो पर घिस लेती ।
            पैरों में रोज महाउरी लगाती।
फिर छोटी सन्दूकची नुमा पिटारी का उटकता सा ढक्कन लगा कर बडे जतन से पिटारी के पांच बार पाँव छूकर  बडी श्रद्धा के साथ आले में सजा देती भगवान की तस्वीर की नाईं।
मै पढने के लिये अपने भाई के साथ शहर चली आयी थी।
इस बीच हमारा कभी कभार ही मिलना होता था ।
या तो जब वह गांव आती और मै भी स्कूल-काॅलेज की छुट्टी के दौरान वहां होती।या मै ही कभी कभार उससे मिलने उसके घर चली जाती ।
लेकिन हम दोनो एक दूसरे से चिट्ठी पत्री से हमेशा जुडे रहे।
मेरी शादी के बाद जब वह मुझसे मिली तो कुछ उदास सी लगी
      एक प्यारे से बेटे की मां बन चुकी थी वह।
           मैने उसकी उदासी का कारण पूछा तो टालमटोल करती रही। जब मैने अपनी बचपन की दोस्ती की कसम दी तो वह फफक पडी।
      उसने मुझे बताया ; " कि उसका पति उसे प्यार नही करता ।बेल्टो के नीले निशानो का भी उसने मुझे साक्षी बनाया।
जिस सौन्दर्य पर मेरी सखी इतराती थी, उसी सौन्दर्य से उसके पति को ढेरो शिकायतें थी ।असल में वह सुधा में सुरैया की नाक , कामिनी कौशल की आवाज , गीतादत्त की अदा , मधुबाला का हुस्न ढूंढ रहा था ।लेकिन मिली उसे  गांव की सीधी सच्ची पतिव्रता सुधा ।
         घर बालो के जोर दवाब में उसने शादी तो कर ली लेकिन निभा नही पा रहा था और इस सबमें पिस रही थी बेचारी सुधा।
            हर रात तो क्या कई कई रातों  वह घर नही आता ।
      सुधा कितना तडपती होगी इसका अंदाजा मै आसानी से लगा सकती थी ।
      जिसने जीवन भर एक ही सपना देखा हो उसके लिये उसके पति का कई कई रातों घर न आना ठीक वैसा ही रहा होगा जैसे हाथ में आया मोती  फिसल कर समुद्र में गिर जाये।
वह बहुत हताशा थी।
            लेकिन हताशा अपना शिकंजा जकडे उससे पहले ही वह तमक कर कहती ;
  " देखना उमा , आयेगा वह। उसे आना पडेगा ।आखिर मुझमे क्या कमी है ? मै सुन्दर हूं ,पतिव्रता हूं , घर की देखभाल भी अच्छे से करती हूं ,उनकी हर इच्छा मानती हूं ,चाहे वह कैसी भी हो , तुम समझ रही हो न ,मै क्या कहना चाह रही हूं ....
और क्या चाहिये एक मर्द को ।"
        मै उसका भोलापन और विश्वास देखकर कभी यह न कह पाती कि नीली फिल्मों के एक्शन पति पर राज करने के लिये काफी नही।
पति पर राज तो किस्मत कराती है ।
   एक दिन सुना उसका पति हमेशा के लिये किसी और का होकर चला गया ।
      उसके लिये छोड गया एक चौदह साल का बेटा और एक निजी घर ।
           दो जून की रोटी का जुगाड करना, बेटे की फीस की चिन्ता में रात दिन घुलना,  रिश्तेदारों की ढिठाई , हँस कर या रोकर झेलना ही उसकी नियति बन गये थे।
       अब उसके पास जमापूंजी के नाम पर  उसका न के बराबर पढाई ,भोलापन और एक अपना मकान था ।
कभी वह रजाई में धागे डालती है ।कभी लिफाफे बनाती है। कभी आधा मकान लीज पर उठाती है....
सब कुछ बदल गया ।
     बेटे ने बहुत समझाया, कि जाने बाला चला गया ,उसे भूल जाओ लेकिन उसका विश्वास कहता वह जरूर लौटेगा।
दिन तो चाहें जैसे हो कट ही जाते है ।
         ग्रहों की चाल बदली । एक दिन उसका विश्वास रंग लाया ।
वह  वापस लौटा लेकिन नशे की हालत में हजारों बीमारियों के संग ।
बेटे ने धिक्कार कर मुंह फेर लिया ।
          उसे देख सुधा के चेहरे पर भी कई रंग आये गये ।एक बार तो उसने भी मुंह फेर लिया पूरी रात वह चौखट के इस तरफ और पति चौखट के उस तरफ बैठा रहा ।नशे में बडबडाते हुये वह अभी भी पीछे छूटे रिश्ते को याद कर रहा था ।
जीवन में पहली बार सुधा इतना रोयी थी उसका दिल ऐसा टूटा कि उसकी
  किरचें रोंयें रोयें में चुभ गयीं । मांग में भरा सिन्दूर उसने अपने हाथों खुरच डाला।
मन ही मन उसने जाने क्या निश्चय किया
दूसरे दिन धूल मिट्टी में लोट रहे पति को उठा कर घर लायी ।
            तब से दोनो साथ हैं।
                 आज काफी समय बाद जब  मै उससे मिली तो उसका कायान्तर देख रहा नही गया तो सोफे की बांह पर बैठे बैठे चुपके से पूँछ ही लिया ;
" अरे  ! सुधा , सिन्दूर की जगह शिल्पा बिन्दी ने कब से ले ली ?और बह मांग का लम्बा सा सिन्दूर कहां गायब हो गया? लगता है ,शहर में रहते रहते बहुत माडर्न हो गयी हो । या बहू पोती पोतो ने बदल दिया दादी को ।"
      मैने उसके मेंहदी लगे हाथ अपने हाथों में लेकर मुस्कुराते हुये कहा।
       वह थोडा सा मुस्कुराई फिर धीमी आवाज मे बोली ; " उमा जब से यह लौटे है तब से मै सिन्दूर नहीं लगाती ।"
     उसकी बात सुन मैने अपनी आंखो में ढेर सारे प्रश्न चिन्ह भर लिये
            बात का छूटा सिरा थामते हुये उसने आगे कहा ; " जब ये लौटे थे तो सबसे तिरस्कृत थे ।यहां तक कि मुझे भी। इनसे घृणा हो गयी थी ।लेकिन इनकी हालत इतनी खराब थी , कि मुझे इन पर दया आ गयी । और मन में अनुसुइया की भांति ममत्व फूट पडा। उसी क्षण हम पति पत्नी से मां बच्चे में तब्दील हो गये अब तो ईश्वर से दिन रात एक ही प्रार्थना  है कि  ईश्वर इन्हे मुझ से पहले उठा ले ।मेरे सिवा इनका कोई नही है।
          यह तमाम तामझाम  रिश्ते दारों की गहमा गहमी मेंहदी बिन्दी लिपिस्टिक सब एक दिखाबा है क्योकि समाज यही दिखावा चाहता है।
वरना तो मेरा सिन्दूर तो कब का उजड चुका है।"
              वह ढोर डंगरो  के लिये भूसा सानी करते हुये मुझसे कहती  ;  " देखना उमा , एक दिन मै भी इस नरक से बाहर निकलूंगी।

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