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शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

                          आज ''अर्थ डे '' पर........!!!

                                                                                                               संगीता सिंह 'भावना'
                                                                     

 

 

 

                                     मानव और प्रकृति का रिश्ता सदियों पुराना है,प्रकृति मानव को सदियों से पालती-पोषती आ रही है ,पर हम मनुष्य उसे नजरंदाज कर सदा से प्रकृति को नुकसान पहुंचाते रहे हैं | प्रकृति यूं तो हमारे अपराधों को क्षमा करती रही है,पर कहते हैं न कि ' अति सर्वत्र वर्जयते'' तो मानव की इसी अतियों से क्षुब्ध होकर प्रकृति ने मानव पर पलटवार किया,इस पलटवार ने मानव को अंदर तक झकझोर दिया ,यह नुकसान ऐसा है ,जो सदियों तक मानव के मानस पटल पर बुरे सपने की तरह झकझोरती रहेगी | जिस प्रकृति ने हमारा पालन -पोषण किया ,जिसकी गोद में बैठकर हमने मानव सभ्यता और विकास की यात्रा शुरू की ,प्रकृति की गोद में अटखेलियाँ करते हम उसी प्रकृति से ही खेलना शुरू कर दिया | प्रकृति ने हमें तमाम संसाधन दिए,जिसके बल पर ही हम विकास कर सके ,विकास के बढ़ते क्रम में पहले तो हमने इसे सहभागी बनाया ,लेकिन बढ़ती लालसाओं,एवं आधुनिकता कि होड में हमने इसका शोषण शुरू कर दिया |अपार खनिज सम्पदा से भरपूर पर्वतमालाएं हमारे लिए वरदान से कम न थी ,पर चहुं ओर फैली इन मूलभूत संपातियों का ओर-छोर जाने बिना मनुष्य इसका लगातार दोहन करता रहा नतीजतन प्रकृति ने भी अपने साथ हुये अन्याय का जवाबी कार्यवाई देना शुरू कर दिया | जंगलों की अंधाधुंध कटाई ग्लोबल वार्मिंग के रूप में सामने आ रही है | तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है,बादल लगातार गर्म होते जा रहे हैं और इसके और गर्म होने की संभावना लगातार बढ़ते ही जा रही है | कभी सोच कर मन दहल जाता है , कि सात महादेशों से सजी इस धरती पर 'जल बिन कैसा होगा जीवन.......??? पानी का जलस्तर लगातार कम हो रहा है ,इसका एक प्रमुख कारण दिन-ब -दिन कम होती बरसात भी है |

''मेरे देश की धरती सोना उगले,उगले हीरे -मोती'' की अब कल्पना भी बेकार लगती है ,क्योंकि धरती लगातार बंजर होते जा रही है | भूमि के के लगातार होते दोहन से भूमि उपजाऊ लायक नहीं रही ,जो कि खाद्दान्न समस्या का प्रमुख कारण है | लगतार यही दिख रहा है कि हम किसी न किसी रूप में प्रकृति के कोपभाजन बन रहे हैं पर शायद हम अपना सुध-बुध खो दिए हैं ,या हमें इसका ज्ञान ही नहीं रहा कि प्रकृति से खिलवाड़ एक दिन हमारा सब कुछ तहस-नहस कर देगा | हम जिस रफ्तार से विकास कि ओर अग्रसर हो रहे हैं ,शायद उसकी दुगुनी रफ्तार से प्रकृति के कोपभजन के शिकार भी होते जा रहे हैं पृथ्वी हमारे कृत्यों से रुष्ट है इसका एहसास हमें समय-समय पर प्रकृतिक आपदाओं के जरिये कराती रही है पर हम अपनी ही धुन में मग्न हैं अगर हम अब भी नहीं संभले तो वह दिन दूर नहीं जब इसके भयानक परिणाम के जिम्मेदार खुद होंगे |
पलों की तबाही
सदियों का दर्द दे गया
मूक समझ जिसे रौंद रहे थे
साथ वो सबकुछ ले गया ......
अब तो ये मंजर है ,
चहुंओर फैला ये कैसा ,,,
दुखों का समंदर है ......
हिमालय भी है चीखकर पूछ रहा
क्या मैं मिट जाऊंगा ,
तब जागोगे .....???
संगीता सिंह ''भावना''
वाराणसी

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