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बुधवार, 17 मार्च 2021

 बिहार के मिथिला क्षेत्र की चर्चित मधुबनी पेंटिंग---पद्मसम्भव श्रीवास्तव 

बिहार के मिथिला क्षेत्र की चर्चित मधुबनी पेंटिंग का नाम अब पूरी दुनिया में लिया जा रहा है। यहां एक ऐसा परिवार भी है, जिसके सभी सदस्य मधुबनी पेंटिंग के माहिर कलाकार हैं।प्राचीन समय में भले ही इस पेंटिंग से घरों की दीवारों को सजाया संवारा जाता हो, मगर हाल के दिनों में मधुबनी पेंटिंग कपड़ों और सजावटी वस्तुओं के साथ-साथ इसकी पहचान देश-विदेश में होने लगी है।कलाकार राजकुमार की नानी, मां, पत्नी भाई, भाभी, मामा-मामी के अलावा परिवार के कई अन्य सदस्य मधुबनी पेंटिंग की परंपरा को जीवित रखे हुए हैं।राजकुमार बताते हैं कि मधुबनी पेंटिंग के नाम से मशहूर यह चित्रकला मिथिला निवासियों की प्राचीन परंपरा और सांस्कृतिक धरोहर के तौर भी जानी जाती है। मधुबनी जिले का शायद ही कोई गांव ऐसा हो, जहां इस प्रकार की पेंटिंग नहीं की जाती हो, लेकिन इस कला के लिए दो गांव- रांटी और जितवारपुर का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नाम होने से कलाकारों को विदेश में जाकर काम करने का मौका मिला।रांटी में लोग आज भी फूलों से बने रंगों और चित्रकारी में लाइन का इस्तेमाल करते हैं, जबकि जितवारपुर में अब फैब्रिक में लगने वाले कृत्रिम रंग का भी इस्तेमाल किया जाता है। वैसे जितवारपुर को प्रसिद्धि इस कारण भी मिली कि इसी गांव की निवासी जगदंबा देवी को मधुबनी कला को लोकप्रिय बनाने में योगदान माना जाता है।मिल चुका है राष्ट्रीय पुरस्कार दिवंगत जगदम्बा देवी को वर्ष 1970 में राष्ट्रीय पुरस्कार और 1975 में पद्म पुरस्कार से सम्मनित किया गया था।जगदंबा देवी के गुजर जाने के बाद उनकी विरासत को संभालने और उनकी कला को आगे बढ़ाने के लिए उनकी भतीजी यशोदा देवी ने जिम्मा संभाला। मधुबनी पेंटिंग की चर्चित कलाकार और कई सम्मान तथा पुरस्कारों से नवाजी गईं यशोदा ने अपनी पूरी जिंदगी मधुबनी कला के लिए समर्पित कर दी।कहा जाता है कि यशोदा देवी सात-आठ वर्ष में ही रंगों और लकीरों से खेलने लगी थीं। यशोदा देवी आज भले नहीं हों, परंतु उनकी विरासत को अब उनके दो पुत्र अशोक कुमार दास और राजकुमार लाल आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं।


राजकुमार पटना में रहकर पिछले 15 वर्षो से इस कला के बहुआयामी पक्ष का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। इस क्रम में वे लगातार विदेषों का भी दौरा करते हैं।राजकुमार कहते हैं, "इस कला को अब विद्यालयों और महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल करने की जरूरत है। इस कला के प्रति अभिरुचि जगाने की जरूरत है।"मॉरीशस सरकार के आमंत्रण पर वहां स्थित रवींद्रनाथ टैगोर इंस्टीट्यूट के शिक्षकों को मधुबनी कला की बारीकियों से अवगत करा चुके राजकुमार कहते हैं कि मधुबनी पेंटिंग की चर्चा अब विदेशों में खूब हो रही है। उन्होंने बताया कि मॉरीशस के धरहरों को उन्होंने चित्रों में उतारा है।प्रश‍िक्षण श‍िविरों का आयोजन मॉरीशस स्थित के शिक्षकों को मधुबनी इसके अलावे देश के विभिन्न शहरों में लगने वाले कला प्रशिक्षण शिविर में जाकर राजकुमार हजारों प्रतिभागियों को मधुबनी चित्रकला का प्रशिक्षण दे रहे हैं।इधर, राजुकमार की पत्नी विभा देवी भी लड़कियों को मधुबनी पेिंटंग का प्रशिक्षण देती हैं। वह कहती हैं, "विवाह के पूर्व मैं थोड़ी बहुत कला जानती थी, लेकिन मधुबनी पेंटिंग को बेहतरीन तरीके से बनाने की कला ससुराल आकर ही सिखी थी।"

सोमवार, 6 अप्रैल 2020

जैसा देव वैसी पूजा (कहानी )- संगीता सिंह भावना---


जानकी का अल्हड़पन पूरे घर के लिए परेशानी का सबब बना हुआ था,मुंहफट भी ऐसी की बड़े-बड़ों को जलील कर देती पर इसका लेशमात्र भी शिकन उसके चेहरे पर न झलकता | माँ नारायणी समझा-बुझाकर थक गई थी,पर जानकी पर उनकी बातों का कोई असर नहीं होता | उसकी बदतमीजियों के किस्से दिनों-दिन बड़ते जा रहे थे | एक बार तो हद ही हो गई,जानकी अपने मामा की लड़की की शादी में सम्मिलित होने माँ के साथ अपने ननिहाल आई थी ,सारा घर शादी के उत्सव में डूबा था और जानकी का शरारती मन कुछ अलग ही खिचड़ी पकाने में मशगूल....! हुआ यूँ कि जानकी खुद अपनी ममेरी बहन की शादी के लिए लाये जोड़े को पहन अपने होने वाले जीजा से शादी करने की जिद ठान ली | युवती होने पर विवाह की इच्छा होना स्वाभाविक था,पर वह तो बस उसके शान-शौकत को देखकर उससे शादी के लिए दीवानी हुए जा रही थी | उसके इस हरकत से घर में कोहराम मचा हुआ था,पर जानकी पर तो जैसे गौरव के बड़े घर,गाड़ी,नौकर चाकर, और उसके साहबाना अंदाज का भूत सवार था | गौरव के जिस शाही अंदाज से वह प्रभावित थी वह उसकी भूल थी, न तो गौरव इतना अधिक संपन्न था और न ही उसके आगे-पीछे नौकर चाकर ! शादी-विवाह में तो हर आदमी अपनी औकात से अधिक ठाट-बात दिखाता है अगर किसी की ऑंखें उसे लखपति समझ बैठे तो उसकी अपनी गलती होगी | हाँ इतना जरूर था कि सरकार की नौकरी थी जिससे गुजर -बसर में कोई तकलीफ नहीं होना था ऐश्वर्य की चमक और बिभूतियों का साम्राज्य भी एक छलावा ही है ,जो मनुष्य के प्रति मनुष्य की ही सहानुभूति ख़त्म कर देती है | जानकी के साथ भी ऐसा ही कुछ था ,वह गौरव के ठाट-बाट को देख अपनी सुध-बुध खो बैठी थी और अपनी ही बहन श्रद्धा के प्रति जलन की भावना प्रबल हो उठी, अगर अपनी हद में रहे तो जलन बुरी चीज नहीं होती ,पर यही जलन अगर जूनून में बदल जाये तो खैर नहीं ईर्ष्या और लालच जब एक ही साथ किसी इंसान में घर कर जाती है तो उसका अंत होना तय है | घर के लोगों ने काफी समझा-बुझाकर उसे उस बेकार की जिद के लिए रोक तो लिया ,पर जानकी का अंतर्मन अन्दर ही अंदर परेशान था | शादी तो गौरव और श्रद्धा की होनी थी सो हो गई पर जानकी के मन में गौरव को न पाने की टीस बरकरार रही ,शादी के बाद वह माँ के साथ ननिहाल से वापस तो आ गई पर उसका शातिर मन गौरव के साथ के सपने देखने लगा | अब वो हमेशा इस फ़िराक में रहने लगी कि कैसे भी करके श्रद्धा की जगह लेनी है ,सो उसने अपनी माँ से बताया कि उसका मन थोड़ा उचट गया है और फिर श्रद्धा गौरव के ऑफिस चले जाने के बाद बिलकूल अकेली भी तो रह जाती होगी सो क्यों न कुछ दिनों के लिए श्रद्धा को भी कंपनी दे दिया जायेगा और मेरा मन भी बहल जायेगा | हालाँकि नारायणी को एकाएक का उसका प्लान कुछ जंच नहीं रहा था,और उसका मन भविष्य की परेशानियों को लेकर सशंकित हो उठा ,पर जानकी ने समझा-बुझाकर अंततः उसे मना ही लिया | चलते-चलते माँ ने दोनों हाथ जोड़कर जानकी को समझाया ,कि बेटा तुम कोई भी काम ऐसा मत करना जिससे कि श्रद्धा की शादी-शुदा जिन्दगी पर आंच आए,तब जानकी ने बड़ी ही बेपरवाही से जवाब दिया .....क्या माँ आप भी हर वक्त बुरा ही सोचती हैं कभी मेरे लिए अच्छा भी तो सोच लिया कीजिये आखिर बेटी हूँ मैं आपकी ! और फिर उस गौरव में रखा ही क्या है ,उस जैसे तो ना जाने कितने मेरे आगे पीछे मंडराते रहते हैं | देखना एक दिन तुम्हारी बेटी राजकुमारी की तरह रहेगी |इधर श्रद्धा और गौरव शादी के उस दिन की बात को बिलकूल भूल चुके थे और प्यार व् समर्पण से अपनी गृहस्थी रुपी गाड़ी चला रहे थे कि एकाएक से जानकी का आना उन्हें अच्छा तो नहीं लगा पर घर आये हुए मेहमान को आदर देना अपने संस्कार को प्रदर्शित करता है | सो उन दोनों ने जानकी का खुले दिल से स्वागत किया,पर श्रद्धा का मन अनजानी आशंका से घबरा उठा तब गौरव ने उसे बड़े ही प्यार से समझाया.....पगली ! तू तो हमेशा मुझे हिम्मत बंधाती रहती है,और तू ही ऐसे कमजोर पड़ जाएगी तो मेरा क्या होगा | शादी कोई गुड्डे-गुड्डी का खेल थोड़े है,जो हवा के मामूली से झोंके से बिखर जाये ,खुद को संभालो और इन बेवजह की बातों को नजरअंदाज कर एक बेहतर जीवन की कल्पना करो सब अच्छा होगा ,मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ | गौरव के स्नेहसिक्त शब्दों से श्रद्धा को आत्मबल तो जरूर मिलता पर अपने रिश्ते को लेकर संशय तो जायज था,कभी-कभी वह सोचती.....औरतें साधारणतः वही खोजती हैं जिस चीजों का उनके जीवन में आभाव हो और सामने वाला इंसान उससे परिपूर्ण ...! जानकी अपने साथ भारी भरकम सूटकेस लेकर आई थी,मालूम पड़ता है ज्यादा दिन ठहरने के इरादे से आई है | बेड तो घर में एक ही था,नतीजतन रात में वह सोफे को पलंग बना कर सो जाती और पूरे दिन तो पलंग पर अपना साम्राज्य बनाये रखती ,जब कभी श्रद्धा उससे पलंग शेयर करती वह अनगिनत नसीहतें उसे सुनाती | बाथरूम में भी उसका ब्रश,कंघा,क्रीम,पेस्ट रसोई में उसके पिन पाउडर,सैंट,नाईट गाउन, स्लीपर मैले कपड़े,सिंक में बिन धुले कप,प्लेटें सभी ने बड़ी ही अधिकारिक रूप से अपने साम्राज्य जमा लिए थे | गौरव की गैरहाजिरी में जानकी श्रद्धा को कोसती और डराती रहती,पर जैसे ही गौरव घर आता उसके शब्दों में शहद घुल जाते और वह श्रद्धा के आगे-पीछे मदद को मंडराती रहती और श्रद्धा के काम करने से मना करने पर बड़े ही नाटकीय ढंग से कहती ......देखिये न जीजाजी ,दीदी तो मुझसे कोई काम ही नहीं करवाती,आखिर मुझे भी तो ससुराल जाकर यह सब करना ही होगा तो क्यों न इसका अभ्यास कर ही लूँ | श्रद्धा और गौरव दोनों ही उसके नाटक से बखूबी परिचित थे,जानकी का शातिर दिमाग और साथ ही ऊँची महत्वाकांक्षा उन दोनों से छुपी नहीं थी ,उसके ऐश्परस्ती के जो सपने थे वे साधारण जिन्दगी से कभी पूरे नहीं हो सकते थे,लेकिन वह अपने सपनों को पूरा करने के लिए अपनी बहन का ही घर उजाड़ना चाहती थी यह बात उनके गले नहीं उतर रही थी | श्रद्धा को वह दिन भी याद आता , जब जानकी ने चार साल पहले रवि नामक इंसान से प्यार का ढोंग रचाकर उसके सारे पैसे ऐंठ लिए थे और जैसे ही उसे पता चला कि रवि की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है तो उसके ऊपर छेड़खानी का आरोप लगाकर उसके खिलाफ केस भी दर्ज करवा दिया था | दरअसल जानकी का असली मकसद उसे धोखा देना ही था,वह हमेशा नये शिकार की तलाश में रहती थी ,जिनकी माली हालत अच्छी नहीं होती थी वहां वह कोई लांछन लगाकर रिश्ते को ख़त्म कर लेती थी | श्रद्धा ने गौरव से उन सारी घटनाओं का जिक्र कर रखा था,जिससे गौरव को जानकी को समझना आसान हो गया था ,और वह भली-भांति जनता था कि ऐसा ही कोई लफड़ा वह उसके साथ भी करने के इरादे से आई थी | सो वे दोनों ही काफी सतर्क थे,और मन ही मन जानकी को सबक सिखाने की भी तरकीब तलाश रहे थे | इधर जानकी भी पूरे तन मन से गौरव को अपने जाल में फंसाने में मशगूल थी,पर अफ़सोस गौरव उसके इस शातिराना अंदाज को भांप गया था |
एक शाम जब गौरव ऑफिस से घर आया तो श्रद्धा बुखार से तप रही थी,जानकी ने उसे बताया कि मैंने कई बार आपको फोन करने की कोशिस किया पर श्रद्धा ने यह कहकर उसे रोक दिया कि ..गौरव को परेशान न करे उसने दवाई ले लिया है ,थोड़ी देर में उसे आराम भी हो जायेगा | बुखार के कारण श्रद्धा कमजोर सी हो गई थी,सो जानकी ने उसे बड़े ही प्यार से समझाया कि वह घर के काम की चिंता न करे आखिर उसकी बहन किस दिन काम आयेगी...? ऐसा कह वह खाने की तैयारी करने लगी और मन ही मन गौरव के पास बार बार जाने का बहाने खोजने लगी | गौरव इस बात से बिलकूल अंजान था,और जब उसने देखा कि श्रद्धा का बुखार थोड़ा कम हुआ तो उसकी ऑंखें झपकने लगी सो उसे सुलाकर टी.वी चलाकर कुछ देखने लगा | इधर जानकी को तो इसी अवसर की तलाश थी ,सो उसने बड़े ही नाटकीय ढंग से बोला,जीजाजी खाना तैयार है आप कहें तो श्रद्धा को भी जगा दूं ,पर गौरव ने यह कहकर उसे मना कर दिया कि बड़ी मुश्किल से तो बुखार में नींद आती है सो उसे सोने दो | जानकी की तो जैसे मुंहमांगी मुराद पूरी हो गई ,वह गौरव के लिए खाना निकालकर ले आई तो गौरव ने शिष्टतावश पूछ लिया कि तुम्हारा खाना किधर है...? तुम भी अपना खाना ले आओ ''
''फिर रोटियां कौन बनाएगा ....? '' जानकी ने दूसरी रोटी तवे पर डालते हुए कहा | और बड़े ही शरारती अंदाज में बोली.....छोटी ही सही ये कुर्बानी क्या मेरे दिल की मुहब्बत नहीं है ....? ऐसे ही ना जाने कितनी छोटी-छोटी कुर्बानियां दिन भर में कितनी ही बार मैं देती हूँ आपके लिए,पर आप हैं कि समझते ही नहीं | गौरव जानकी के शब्दों का अर्थ बखूबी समझ रहा था,फिर भी उसने कहा ,''मुझे रोटियां बनानी आती होती तो मैं पहले तुम्हें बना कर खिलाता ,सुनो तुम सारी रोटियां बना लो हम साथ में खायेंगे |''अगर आदमी प्यार में थोड़ी इज्जत भी मिला दे तो औरत को पक्का यकीं हो जाता है कि सामने वाला व्यक्ति उसके प्यार के जाल में फंसने वाला है ,कितनी कमाल की होती है ये औरत जात ,थोड़ा सा इशारा मिलते ही सीधे दिल में उतरने लगती हैं | जानकी के मन के अंदर तक एक अजीब सी हलचल रौनक बन धड़कने लगा ,और एक अजीब सी कशिश से गौरव को निहारने लगी | कितना कमजोर हो जाता है आदमी उस क्षण में जब एक नारी का नेह निमंत्रण उसे मिलता है और वह भीतर-ही भीतर पिघलने लगता है , गौरव के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था , उसके पूरे बदन में एक अजीब सी सनसनाहट दौड़ रही थी,उसके कान गरम होने लगे थे पर अगले ही पल उसे जानकी की शातिरता का ख्याल हो आया और वह खुद को संभाल लिया | ये मन भी न अपने रेतीले रेगिस्तान में कैसे-कैसे लम्हों की मरीचिका बनाने लगता है,कैसे -कैसे सपने देखने लगता है न ! गौरव ने ध्यान से जानकी को देखा ,बाल खुले थे,और आँखों में गजब की चंचलता जैसे नदी का पानी पूरी वेग से उमड़ने को तैयार हो | गौरव का मन एक बार फिर भटकने लगा था,उससे नहीं खुद से ,भटकाव तो हमेशा खुद से होता है न कि सामने वाले से | गौरव को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे ...? एक तरफ जानकी का मौन निमंत्रण दूसरी तरफ श्रद्धा का उसके प्रति अटूट विश्वास ! अगर भूल से भी श्रद्धा को उसके मन में उठने वाले हलचल का जिक्र हो जाये तो उसका मायके जाना तय | अरेंज मैरेज में बीवी के मायके जाने के चांस अधिक होते हैं | जब आदमी किसी निष्कर्ष पर न पहुंचे तो उसे सो जाना चाहिए ,सो उसने टी.वी को बंद किया और सोने जाने लगा अचानक उसने पीछे मुड़कर देखा तो जानकी उसे ही देखती नजर आई ,सो उसने गुड नाईट कहते हुए अपने कमरे में प्रवेश किया | श्रद्धा अभी भी बुखार से तप रही थी ,गौरव भी उसके बगल में लेट गया और सोने की कोशिश करने लगा पर नींद तो आँखों में उतरने से रही और विचारों का मंथन लगातार प्रहार किये जा रहा था | गौरव किसी ऐसे निष्कर्ष की तलाश में था जिससे जानकी फिर कभी किसी को अपनी शातिरता का निशाना ना बनाये और एक अच्छी जिन्दगी की शुरुवात करे | इधर जानकी भी अपने नये शिकार की तलाश में मन ही मन विचारों की अच्छी माला गूंथने में लगी थी | कभी -कभी इंसान भी न कुछ पाने की कोशिश में अपना सर्वस्व दाव पर लगा देता है और अंत में खाली हाथ ही रह जाता है, इस समय कुछ ऐसी ही हालत जानकी की भी थी ,वह किसी भी सूरत में गौरव को पाना चाहती थी | उसने श्रद्धा की तबियत जानने के बहाने ही उनके बेडरूम में गई ,और जब उसने देखा कि श्रद्धा बेसुध पड़ी है तो बड़ी ही कातर नजरों से गौरव की ओर देखने लगी तो गौरव जो अब तक उसके निमंत्रण से अनभिग्य नहीं था वह बोला,''देखो जानकी ...मन की दुर्बलता का दुनियां में कोई इलाज नहीं है,कामनाओं का क्या है वह तो जिस वेग से शुरू होता है उसी वेग से उतर भी जाता है और बाद में सिवाय पछतावे के कुछ भी नहीं बचता है | भूल जाओ जो अबतक तुमने किया ,और विवाह कर एक अच्छी जिन्दगी की शुरुवात करो| मेरी नजर में मेरा एक दोस्त है जो बहुत पैसेवाला तो नहीं पर एक बेहतर इंसान है ,तुम कहो तो मैं उससे शादी की बात चलाऊँ....? आखिर ये जिन्दगी भी कोई जिंदगी है ,,कब तक यूँ ही भटकती और छलती रहोगी खुद को | पैसा तो हाथ का मैल है और यह शरीर जिसके भरोसे तुमने आजतक खुद को छलते रही वह भी एक दिन ढल जायेगी | गौरव ने कितने संक्षेप में कितनी स्पष्टता से इतनी बड़ी बात कह दी थी , जहाँ तक जानकी ने जाना सुना था,वह तो यही था कि पुरुष के भीतर एक जानवर होता है,वह नारी के रूप को नहीं बल्कि उसके शारीर की कामना करता है | वह तो नारी ही है जो अपने निषेध से पुरुष को रोके रखती ,नारी के प्रति नकार तो उसने पुरुष में कभी भी नहीं देखा था मर्यादा का चुनाव तो सदा से स्त्रियों के गुण हैं ,पर यहाँ तो ठीक उल्टा ही हो रहा है | बड़ी रात गए तक वह असमंजस में खुद से उलझती रही ,पर कोई ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाई,फिर अगले ही पल सोचने लगी कि गौरव अगर पुरुष होकर भी सागर के सामान अपनी मर्यादाओं को नहीं छोड़ता,तो मैं ही इतनी आतुर क्यों हूँ ....? क्या यह सिर्फ पैसों की भूख है या फिर शरीर की जरुरत ....? मैं क्यों न इसकी गहराई से ही संयम सीखूं ,और एक नये जीवन को विस्तार दूं ,व्यर्थ ही आज तक भागती-भटकती शायद बहुत दूर निकल आई हूँ ,तो क्यों न लौट चलूँ और एक बेहतर चरित्र का निर्माण करूँ | जानकी को संतुष्टि का यह स्वप्न बहुत ही सुखद प्रतीत हुआ और ऐसा लगा जैसे उसके मन से कोई बहुत बड़ा बोझ उतर गया

शनिवार, 27 जुलाई 2019

पत्रिका  का नया अंक २०१९ , इस अंक में पूज्य डॉ. जयशंकर त्रिपाठी , सुरेश सक्सेना ,दिव्यांशी भाटिया , पूर्णिमा शर्मा ,सविता मिश्रा ,मिन्नी मिश्रा ,सुनीता त्यागी ,अशोक अंजुम ,भावना सक्सेना ,प्रभात ,नंदा पांडेय ,डॉ. विमल चंद्र शुक्ल आदि को पढ़ सकतें हैं

सोमवार, 29 अक्तूबर 2018

करुणावती साहित्य धारा का नया अंक अनेक झंझावातों को झेलते हुए -------
कवर चित्र और अनुक्रमाणिका

 संपादकीय                

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शनिवार, 15 अप्रैल 2017



laikndh;  अंक 16-17  
 
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सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

कहानी : ------"वादा"    

                                                ----  सुश्री रत्ना रॉय 

         अभी अभी गोविंदपुर स्टेशन पर उतरी। पहली बार इस स्टेशन पर उतरना हुआ। किसी काम से नहीं, आई हूँ एक वादा निभाने। किसी को पच्चीस साल पहले किया वादा। वो कहता था वादा रखना भी ईमानदारी है सिर्फ रूपये पैसों में ईमानदारी रखना ही जीवन का एक मात्र उद्देश्य नहीं हो सकता। आज मैं उससे सीखी इसी ईमानदारी का मान रखने आई हूँ। हमारे संक्षिप्त से सम्बंधकाल में ज्यादा वादों का आदान प्रदान नही हुआ, जो हुआ उसमे से ये भी एक था। जब मेरी ट्रेन कर रुकी तो स्टेशन एकदम सुनसान सा था, लगा जैसे मेरे अलावा यहाँ और कोई है ही नहीं। एक चायवाला तक नज़र नहीं आया। इंतजार करना हो तो चाय का साथ सबसे बढ़िया होता है लेकिन वो भी नहीं। ऐसा लगा कि ये स्टेशन भारत का हिस्सा ही नही, चायवाला न दिखे ऐसा तो किसी स्टेशन में नहीं होता। अचानक कुछ लोग दिखाई पड़े तेज़ी से चलते चले जा रहे है, जैसे कुछ छुट जाये ऐसी तेज़ी। अब अस्त-व्यस्त सा एक छोटा झुण्ड बन गया। लगा इस झुण्ड में अर्जुन दिखाई पड़ा। क्या ये भ्रम था? जब किसी के बारे में ही सोचते रहो उसका ही इंतजार हो तो शायद ऐसा ही होता होगा। कितने साल गुज़र गए अर्जुन को नहीं देखा, जाने कैसा दिखता होगा अब। उस भीड़भाड़ में एक बार झांक आई लेकिन वो नहीं दिखा। स्टेशन  आज भी वैसा ही है जैसा 25 साल पहले था निर्जन लेकिन खूबसूरत। प्लेटफॉर्म से ही ऊँचे पहाड़ और उस पर हरे-हरे पेड़ दिखाई देते है। पेड़ के पत्ते भी कितने रंग ले कर रहते है, ऐसा लग रहा जैसे पहाड़ किसी किशोर लड़के की तरह हेयर कलर से अपने बालों में कई रंग सजाए हों। स्टेशन में भी कुछ पेड़ है जो इस समय फूलों से लदे है। इस सौन्दर्य को उस समय भी ऐसे ही देख कर मुग्ध हो गयी थी और तय कर लिया था कि एक दिन ज़रूर यहाँ आऊँगी। इंतजार का वक्त भी यादों की रेल चलाता है। बैठे-बैठे एक बार फिर 25 साल पुराने उस गुज़रे समय से फिर गुज़रने लगी। हम दिल्ली जा रहे थे बीच में ही गोविंदपुर स्टेशन पड़ता है। थोड़ी देर के लिए ट्रेन रुकी, मैं बाहर झांक कर देखने लगीदेखो कितनी सुन्दर जगह है, ऐसा सौन्दर्य कि मन कर रहा यहीं उतर जाऊं। देखो न।।अर्जुन झांक कर देखा और बोला, ‘वाह! वाकई बहुत सुन्दर है मेधा। - गोविंदपुर स्टेशनबाहर लिखे बोर्ड को पढ़ते हुए अर्जुन बुदबुदाया।
मैं यहाँ फिर आना चाहूंगी।
कब?’ अर्जुन पूछा।
हम्म! आज से ठीक 25 साल बाद। तुम और मैं, चाहे जैसे भी हालात हों कुछ भी हो, हम यहाँ ज़रूर आयेंगे। समझ लेना उस दिन हमारा प्रेम दिवस होगा। हमारे प्यार की 25वीं सालगिरह। हो
सकता है तुम तब भी राजनीति में सक्रिय रहो और इस विशाल जनमानस में बसने की कोशिश में फिर मेरे लिए समय मिल पाए। जानते हो तुम्हारे लिए मुझे हमेशा डर ही लगा रहता है। तुम याद रखोगे आज की तारीख और ये प्रतिज्ञा...?’
मैं वादा करने पर निभाता ज़रूर हूँ। बेईमानी करने के लिए भी हिम्मत की ज़रूरत होती है लेकिन उससे भी ज्यादा हिम्मत चाहिए भावनात्मक ईमानदारी को बचाए रखने के लिए। मैं उसी ईमानदारी में विश्वास करता हूँ।’ ‘घर में क्या बोल कर आई?’ अर्जुन ने सवाल किया।
झूठ बोल कर.... मैंने कहा कि एक प्रोजेक्ट है, उसी के लिए दिल्ली जाना होगा। अरुणा और अनुभा को बोल आई हूँ घर में फोन मत करना। तुम्हारी तरह तो मेरा कोई पार्टी का काम नहीं हो सकता न। क्या करूँ?’ मैंने मुस्कुरा कर जवाब दिया।
अर्जुन मेरे से एक साल सीनियर था, कॉलेज में आते ही रैगिंग में फंसी। मैं एक बहुत छोटे से शहर की लड़की, बड़े शहर की लडकियों से अलग हाव-भाव और पहनावे की वजह से तुरंत पहचान भी ली जाती थी और मुझमें शहरी लड़कियों जैसी हो पाने के कारण एक हीनताबोध भी जिसकी छाप मेरे व्यक्तित्व पर भी थी। सीनियर लड़के-लड़कियों ने तरह-तरह के सवाल करने शुरू किये और मजाक बनाना भी। मैं लगभग रो ही पड़ी थी तभी अर्जुन आगे बढ़ आया और मुझे सबके बीच से बचा ले गया। कॉलेज में उसकी अच्छी चलती थी स्टूडेंट यूनियन का लीडर था। सभी उसकी बात मानते थे। यहीं उससे मेरा पहला परिचय हुआ। छोटे शहर की लड़की होने की वजह से जो जड़ता मुझमें थी इसका उसे भान था। उसने धीरे-धीरे मेरी हीनभावना को कब आत्मविश्वास में बदल दिया पता ही नहीं चला। शायद उसका साथ ही मेरा आत्मविश्वास था। कॉलेज फंक्शन में हिस्सा लेना, गाना आता था लेकिन इतने लोगों के सामने गाने का साहस अर्जुन ने ही दिलाया था। अर्जुन स्टूडेंट यूनियन का नेता था , वाम नेता। मैं हमेशा सोचती कि इतने बड़े कॉलेज में पढने वाले लड़के-लड़कियां ज़्यादातर अमीर घर से थे तो वो लोग कैसे वाम नेता को वोट देते हैं! लेकिन ये भी सच था कि हर बार जीत वाम की ही होती थी। राजनीति में मेरी दिलचस्पी सिर्फ अखबार पढने तक ही थी पर अर्जुन के साथ ने राजनीति में सक्रीय भी कर दिया। कभी रैली तो कभी धरना देने के कार्यक्रम में अर्जुन के साथ जाने लगी। उस समय मैं कुछ ऐसी हो गयी थी कि उसकी किसी बात कोनाकहने की शक्ति मुझमें नहीं थी। कई बार ऐसा भी हुआ कि पुलिस लाठी चार्ज शुरू हो गया; चारों ओर अफरा तफरी का माहौल, ऐसे में अर्जुन उतनी भीड़ के बीच से भी ठीक मुझे निकाल कर दौड़ लगाते हुए पहले सुरक्षित स्थान पर पहुंचा कर फिर उस जगह पहुँच जाता। मैं अर्जुन के लिए अकसर डरी रहती थी पता नही कब पुलिस की गोली या लाठी लगे और.... उसे कुछ हो गया तो....?
देखते-ही- देखते मैं कॉलेज से यूनिवर्सिटी पहुँच गयी। इतनी सक्रियता के बावजूद मैं अपनी पढाई समय पर पूरी कर लेती थी, लेकिन अर्जुन पढाई पर ध्यान नही दे पाता था। उसके नोट्स मुझे ही दूसरों से कॉपी कर-कर के उसे देने होते थे। वो बहुत मेधावी था लेकिन राजनीति करने के लिए उसने कभी पढाई पर ध्यान नहीं दिया, बस हायर सेकंड डिवीज़न जितना ही अपना परसेंटेज बनाये रखता था। वो चाहता तो बहुत अच्छे नंबर ला कर टॉप भी कर सकता था, किसी अच्छी जगह नौकरी का सुअवसर भी कोई उससे छिन नही सकता था; लेकिन उसने सब छोड़ कर राजनीति में ही अपना भविष्य देखा। ये राजनीति भी नशा होती है, एक बार लग गयी तो फिर छुटती नहीं। अर्जुन और मैं कभी अकेले में नही मिले थे, जब भी मिलना होता कॉलेज कैंटीन में बहुत सारे लड़के-लड़कियों के बीच राजनीति पर ही बात करते हुए। हमारी अपनी कोई अलग बात नही होती थी। हाँ सबके बीच कभी-कभी हौले से वो मेरी ऊँगली छू लेता। और मुस्कुरा कर मेरी आँखों में झांक लेता था, जाने क्या हो जाता मैं घबरा कर आँखे नीची कर लेती थी। लेकिन तब भीड़ में सबके बीच होते हुए भी सबसे अलग होने का अनुभव बिना पंखों के ही उड़ने की इच्छा जगाने लगता... कॉलेज के विद्यार्थियों के बीच ही एक दूसरे के साथ थोड़ा सा बिताया गया समय हमारे लिए प्रेम भरे दिन थे। एक दिन भी अगर बिना बताये अर्जुन गायब रहे तो मेरा मन भटकता ही रहता, कहीं से कोई खबर उसकी मिल जाये बस इसी जोड़- तोड़ में दिन गुज़र जाता। ऐसे ही एक दिन अर्जुन सारा दिन गायब रहा। कोई खबर नहीं कहाँ है। मैं बार-बार कॉलेज कैंटीन की तरफ जाती कि शायद नजर जाये या किसी को उसके बारे में कुछ पता हो। लेकिन कुछ पता नही चला। शाम को भारी क़दमों से सोचते हुए चुपचाप बस स्टॉप की ओर चली जा रही थी कि अचानक अर्जुन सामने खड़ा हो गया। हँसते हुए कहने लगा, ‘मेरे बारे में सोचते हुए चलोगी तो बस के अन्दर नहीं नीचे चली जाओगी। मैं भी मौत का सामान ही हूँ। मुझे हमेशा साथ ले कर चलने की चिंता मत करो। धमाका हो जायेगा।उस दिन उसकी बात पर और उसे देख कर मैं हंस नहीं पाई थी। एक अजनबी डर ने मन में घर बना लिया। आँखों में नाराज़गी और आंसू दोनों झाँकने लगे। अर्जुन उस दिन बस में जा कर जबरदस्ती मुझे ऑटो में साथ ले गया। पूरे रास्ते मैंने उससे बात नहीं की। ऑटो रुका तो सामने पार्क था अर्जुन ने मुझे वहीँ उतरने को कहा। बिना कुछ कहे मैं चुपचाप वहाँ उतर गयी। आज पहली बार कॉलेज कैंटीन के बाहर हम एक साथ बैठे थे। मेरा गुस्सा आँसुओं में फुट कर बह निकला।
थोड़ा शांत होने के बाद मैंने उससे कहा, ‘तुम बिना बताये ऐसे क्यों गायब हो जाते हो?मन बेचैन होने लगता है। बुरी आशंकाओं से दिल बैठा जाता है लेकिन ये सब बातें तुम्हे समझ ही कहाँ आती हैं!’पहली बार उसने मेरा हाथ अपने हाथो में लिया। कुछ देर हमदोनों चुपचाप उस लम्हे को महसूस करते रहे।
खामोशी अर्जुन ने ही तोड़ी, कहा – ‘मेधा! अब तुम्हे इन चिंताओं से मुक्त होना होगा। मेरे और तुम्हारे रास्ते अलग होने का समय गया है। विश्वास करो मुझे भी तुमसे उतना ही प्यार है जितना कि तुम मुझसे करती हो लेकिन इस प्यार के लिए जो क़ुरबानी देनी होगी वो मैं नहीं दे सकता। जितना प्रेम तुम्हारे लिए है ठीक उतना ही प्रेम मैं उन लोगों से भी करता हूँ जो समाज के किसी दर्जे में दर्ज नहीं होते, हमेशा से शोषित, वंचित और पल-पल मरने को मजबूर हैं। मुझे उनके पास जाना होगा उनके साथ खड़ा होना होगा। उनके लिए लडाई लड़नी है। उनके जीवन के लिए संघर्ष करना है। इन सबके साथ मैं तुम्हे ले कर नहीं चल सकता। पता नही कब कौन सी गोली मुझे कर लगेगी और उस दिन सब खत्म। तुम्हे देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं होगा। घर संसार ख़ुशी... कुछ भी नहीं। मैं तुम्हे कभी भी सुखी वैवाहिक जीवन का वादा नहीं कर सकता। बल्कि कहना चाहता हूँ तुम पढाई ख़त्म कर के अपना अच्छा भविष्य बनाना और एक अच्छे लड़के से शादी भी कर लेना। चाहो तो इसे भी मेरा आदेश ही समझ लो। मुझे अब यहाँ से चले जाना होगा। एक नये लक्ष्य, नई जगह, नये नाम और पहचान के साथ। आज के बाद मेरा तुमसे कोई सम्पर्क नहीं होगा। जानने की कोशिश भी मत करना। मर गया तो शायद टीवी और अख़बार के ज़रिये तुम तक खबर ज़रूर पहुँच जाएगी। तुम्हे छोड़ कर जाने के लिए तुम मुझे माफ़ कर सकोगी मेधा!
बहते आंसुओं के साथ अर्जुन की सारी बातें सुनती रही थी। अंत में बस इतना ही बोल पायी, ‘तुमने कभी शादी का वादा नहीं किया और न ही कभी ऐसे सपने दिखाए जिसके लिए माफ़ी मांगो। तुम्हे तुम्हारे कर्तव्य के रास्ते से मैं कभी मुड़ने नहीं कहूँगी। जैसा तुमने कहा वैसा ही होगा।’ वो शाम ही हमारे रिश्ते की आखरी शाम थी। आज 25 साल बाद फिर इस स्टेशन पर उसके इंतजार में बीते दिनों की याद के साथ मैं.... लेकिन अर्जुन अभी तक आया क्यों नहीं! वो भूलेगा नहीं। पूरा विश्वास है मुझे, फिर क्या हुआ? ज्यादा समय नहीं लगा मुझे इन सवालों के जवाब पाने में। अगली सुबह के अख़बार के पहले पन्ने पर ही मेरे सारे सवालों के जवाब थे। सरकार के लिए मोस्ट वांटेड नक्सली अर्जुन पुलिस और खुफिया विभाग की सक्रियता से पकड़ा गया था। लिखा था कि प्रारंभ में उदारपंथी नक्सली विचारधारा से प्रभावित अर्जुन बाद में प्रशासन की दमन नीति के प्रतिकार में उग्रपंथी मार्ग की ओर मुड़ गया। माना जाता था कि सेना और पुलिस की टुकड़ियों पर हमले, सुदूरवर्ती इलाक़ों को जोड़ने वाले पूलों, सड़कों आदि को बम ब्लास्ट आदि से उड़ाने जैसी घटनाओं की योजना उसी के दिमाग की उपज थी। कहा जा रहा था कि गोविंदपुर स्टेशन पर भी वह अपनी किसी आगामी योजना की रेकी के लिए आने वाला था, जिसकी सूचना पुलिस को किसी मुखबिर से मिल गई और समय रहते उसे गिरफ्तार कर लिया गया। मैं जानती थी, और बातों में चाहे जितनी सच्चाई हो, यह बात झूठी थी। वो गोविंदपुर स्टेशन तो... वरना वो यहाँ बिना किसी सुरक्षा तैयारी के नहीं आता। खैर, अपने तमाम कार्यों के बीच भी वह अपना वादा नहीं भूला तो इतना तो तय है कि उसके दिल के किसी कोने में मृदुल भावनाएँ, संवेदनाएँ आज भी जीवित हैं। वो उसे नहीं भूला  अभी तक और न एक-दूसरे से किए वादे को ही। हाँ, इस वादे के पूरे होने की मियाद थोड़ी लंबी जरूर हो गई है। अपनी सजा पूरी कर जब वो बाहर निकलेगा, तब शायद अपना रास्ता बदल गरीबों-शोषितों की सहायता के लिए वो शायद कोई और राह तलाशे! उस राह पर चलते, अपनी मंजिल पर पहुँचते उसके चेहरे पर वही मुस्कान फिर वापस आयेगी जो मेरे मानस पटल में पिछले 25 वर्षों से छपी हुई है। उसकी इस मुस्कान को फिर एक बार देखने का मैं इंतजार करूँगी... मैं उस से फिर मिलूँगी। ये मेरा वादा है- मुझसे, उसकी यादों से, उसके भरोसे से... इस बार कोई समय सीमा नहीं रखी है, मगर खुद से ही किया है फिर एक मुलाक़ात का वादा !