कहानी : ------"वादा"
---- सुश्री रत्ना रॉय
अभी अभी
गोविंदपुर स्टेशन पर उतरी। पहली
बार इस
स्टेशन पर
उतरना हुआ।
किसी काम
से नहीं,
आई
हूँ एक
वादा निभाने।
किसी को
पच्चीस साल
पहले किया
वादा। वो
कहता था
वादा रखना भी ईमानदारी है सिर्फ
रूपये पैसों
में ईमानदारी
रखना ही
जीवन का
एक मात्र
उद्देश्य नहीं
हो सकता।
आज मैं
उससे सीखी
इसी ईमानदारी
का मान
रखने आई
हूँ। हमारे
संक्षिप्त से सम्बंधकाल में ज्यादा वादों
का आदान
प्रदान नही
हुआ,
जो
हुआ उसमे
से ये
भी एक
था। जब मेरी
ट्रेन आ
कर रुकी
तो स्टेशन
एकदम सुनसान
सा था,
लगा जैसे
मेरे अलावा
यहाँ और
कोई है ही नहीं। एक चायवाला
तक नज़र
नहीं आया।
इंतजार करना
हो तो
चाय का
साथ सबसे
बढ़िया होता है लेकिन
वो भी
नहीं। ऐसा
लगा कि
ये स्टेशन
भारत का
हिस्सा ही
नही,
चायवाला
न दिखे ऐसा तो किसी स्टेशन
में नहीं
होता। अचानक
कुछ लोग
दिखाई पड़े
तेज़ी से
चलते चले
जा रहे है,
जैसे कुछ छुट
न जाये
ऐसी तेज़ी।
अब अस्त-
व्यस्त सा
एक छोटा
झुण्ड बन
गया। लगा इस
झुण्ड में
अर्जुन दिखाई
पड़ा। क्या
ये भ्रम
था?
जब
किसी के
बारे में
ही सोचते
रहो उसका ही
इंतजार हो
तो शायद
ऐसा ही
होता होगा।
कितने साल
गुज़र गए
अर्जुन को
नहीं देखा,
जाने कैसा
दिखता होगा
अब। उस
भीड़भाड़ में
एक बार
झांक आई
लेकिन वो
नहीं दिखा।
स्टेशन
आज भी वैसा ही
है जैसा
25
साल पहले
था निर्जन
लेकिन खूबसूरत।
प्लेटफॉर्म से ही ऊँचे पहाड़ और
उस पर
हरे-
हरे
पेड़ दिखाई
देते है।
पेड़ के
पत्ते भी
कितने रंग
ले कर
रहते है,
ऐसा लग
रहा जैसे पहाड़
किसी किशोर
लड़के की
तरह हेयर
कलर से
अपने बालों
में कई
रंग सजाए
हों। स्टेशन
में भी कुछ पेड़ है जो
इस समय
फूलों से
लदे है।
इस सौन्दर्य
को उस
समय भी
ऐसे ही
देख कर
मुग्ध हो गयी थी और तय
कर लिया
था कि
एक दिन
ज़रूर यहाँ
आऊँगी। इंतजार का वक्त भी न यादों की
रेल चलाता
है। बैठे-
बैठे एक
बार फिर
25
साल पुराने
उस गुज़रे
समय से फिर गुज़रने लगी। हम
दिल्ली जा
रहे थे
बीच में
ही गोविंदपुर
स्टेशन पड़ता
है। थोड़ी
देर के लिए ट्रेन रुकी,
मैं
बाहर झांक
कर देखने
लगी ‘
देखो
कितनी सुन्दर
जगह है,
ऐसा सौन्दर्य
कि मन कर रहा यहीं उतर
जाऊं। देखो
न।।’
अर्जुन
झांक कर
देखा और
बोला, ‘
वाह!
वाकई बहुत
सुन्दर है
मेधा। -
गोविंदपुर
स्टेशन’
बाहर
लिखे बोर्ड को पढ़ते
हुए अर्जुन
बुदबुदाया।
‘मैं यहाँ
फिर आना
चाहूंगी।’
‘कब?’ अर्जुन
पूछा।
‘हम्म! आज
से ठीक
25 साल बाद।
तुम और
मैं, चाहे
जैसे भी
हालात हों
कुछ भी
हो, हम
यहाँ ज़रूर आयेंगे। समझ लेना उस
दिन हमारा
प्रेम दिवस
होगा। हमारे
प्यार की
25वीं सालगिरह।
हो
सकता है
तुम तब
भी राजनीति
में सक्रिय
रहो और
इस विशाल
जनमानस में
बसने की
कोशिश में फिर मेरे लिए समय
न मिल
पाए। जानते
हो तुम्हारे
लिए मुझे
हमेशा डर
ही लगा
रहता है।
तुम याद रखोगे न आज की
तारीख और
ये प्रतिज्ञा...?’
‘मैं वादा
करने पर
निभाता ज़रूर
हूँ। बेईमानी
करने के
लिए भी
हिम्मत की
ज़रूरत होती
है लेकिन उससे
भी ज्यादा
हिम्मत चाहिए
भावनात्मक ईमानदारी को बचाए रखने
के लिए।
मैं उसी
ईमानदारी में विश्वास करता
हूँ।’ ‘घर
में क्या
बोल कर
आई?’ अर्जुन
ने सवाल
किया।
‘झूठ बोल
कर.... मैंने
कहा कि
एक प्रोजेक्ट
है, उसी
के लिए
दिल्ली जाना
होगा। अरुणा
और अनुभा को
बोल आई
हूँ घर
में फोन
मत करना।
तुम्हारी तरह
तो मेरा
कोई पार्टी
का काम
नहीं हो सकता
न। क्या
करूँ?’ मैंने
मुस्कुरा कर
जवाब दिया।
अर्जुन मेरे
से एक
साल सीनियर
था, कॉलेज
में आते
ही रैगिंग
में फंसी।
मैं एक
बहुत छोटे
से शहर की
लड़की, बड़े
शहर की
लडकियों से
अलग हाव-भाव और
पहनावे की
वजह से
तुरंत पहचान
भी ली जाती थी और मुझमें
शहरी लड़कियों
जैसी न
हो पाने
के कारण
एक हीनताबोध
भी जिसकी छाप
मेरे व्यक्तित्व
पर भी
थी। सीनियर
लड़के-लड़कियों
ने तरह-तरह के
सवाल करने
शुरू किये और मजाक
बनाना भी।
मैं लगभग
रो ही
पड़ी थी
तभी अर्जुन
आगे बढ़
आया और
मुझे सबके बीच से बचा ले
गया। कॉलेज
में उसकी
अच्छी चलती
थी स्टूडेंट
यूनियन का
लीडर था।
सभी उसकी बात मानते थे। यहीं
उससे मेरा
पहला परिचय
हुआ। छोटे
शहर की
लड़की होने
की वजह से
जो जड़ता
मुझमें थी
इसका उसे
भान था।
उसने धीरे-धीरे मेरी
हीनभावना को
कब आत्मविश्वास में बदल दिया पता
ही नहीं
चला। शायद
उसका साथ
ही मेरा
आत्मविश्वास था। कॉलेज फंक्शन में हिस्सा
लेना, गाना
आता था
लेकिन इतने
लोगों के
सामने गाने
का साहस
अर्जुन ने ही दिलाया
था। अर्जुन स्टूडेंट यूनियन का नेता
था , वाम
नेता। मैं
हमेशा सोचती
कि इतने
बड़े कॉलेज
में पढने
वाले लड़के-लड़कियां ज़्यादातर
अमीर घर
से थे
तो वो
लोग कैसे
वाम नेता
को वोट
देते हैं!
लेकिन ये भी
सच था
कि हर
बार जीत
वाम की
ही होती
थी। राजनीति
में मेरी
दिलचस्पी सिर्फ
अखबार पढने तक ही थी पर
अर्जुन के
साथ ने
राजनीति में
सक्रीय भी
कर दिया।
कभी रैली
तो कभी
धरना देने के कार्यक्रम
में अर्जुन
के साथ
जाने लगी।
उस समय
मैं कुछ
ऐसी हो
गयी थी
कि उसकी किसी
बात को
‘ना’ कहने
की शक्ति
मुझमें नहीं
थी। कई
बार ऐसा
भी हुआ
कि पुलिस
लाठी चार्ज शुरू हो
गया; चारों
ओर अफरा
तफरी का
माहौल, ऐसे
में अर्जुन
उतनी भीड़
के बीच
से भी ठीक
मुझे निकाल
कर दौड़
लगाते हुए
पहले सुरक्षित
स्थान पर
पहुंचा कर
फिर उस
जगह पहुँच जाता। मैं अर्जुन के
लिए अकसर
डरी रहती
थी पता
नही कब
पुलिस की
गोली या
लाठी लगे
और.... उसे
कुछ हो गया तो....?
देखते-ही-
देखते मैं
कॉलेज से
यूनिवर्सिटी पहुँच गयी। इतनी सक्रियता
के बावजूद
मैं अपनी
पढाई समय पर
पूरी कर
लेती थी,
लेकिन अर्जुन
पढाई पर
ध्यान नही
दे पाता
था। उसके
नोट्स मुझे
ही दूसरों से कॉपी
कर-कर
के उसे
देने होते
थे। वो
बहुत मेधावी
था लेकिन
राजनीति करने
के लिए उसने
कभी पढाई
पर ध्यान
नहीं दिया,
बस हायर
सेकंड डिवीज़न
जितना ही
अपना परसेंटेज
बनाये रखता था। वो
चाहता तो
बहुत अच्छे
नंबर ला
कर टॉप
भी कर
सकता था,
किसी अच्छी
जगह नौकरी का सुअवसर
भी कोई
उससे छिन
नही सकता
था; लेकिन
उसने सब
छोड़ कर
राजनीति में ही अपना
भविष्य देखा।
ये राजनीति
भी न
नशा होती
है, एक
बार लग
गयी तो
फिर छुटती नहीं। अर्जुन और मैं कभी
अकेले में
नही मिले
थे, जब
भी मिलना
होता कॉलेज
कैंटीन में
बहुत सारे
लड़के-लड़कियों के बीच
राजनीति पर
ही बात
करते हुए।
हमारी अपनी
कोई अलग
बात नही
होती थी। हाँ
सबके बीच
कभी-कभी
हौले से
वो मेरी
ऊँगली छू
लेता। और
मुस्कुरा कर
मेरी आँखों
में झांक लेता
था, जाने
क्या हो
जाता मैं
घबरा कर
आँखे नीची
कर लेती
थी। लेकिन
तब भीड़
में सबके बीच
होते हुए
भी सबसे
अलग होने
का अनुभव
बिना पंखों
के ही
उड़ने की
इच्छा जगाने
लगता... कॉलेज के विद्यार्थियों
के बीच
ही एक
दूसरे के
साथ थोड़ा
सा बिताया
गया समय
हमारे लिए
प्रेम भरे दिन थे। एक दिन
भी अगर
बिना बताये
अर्जुन गायब
रहे तो
मेरा मन
भटकता ही
रहता, कहीं
से कोई
खबर उसकी
मिल जाये
बस इसी
जोड़- तोड़
में दिन
गुज़र जाता।
ऐसे ही
एक दिन
अर्जुन सारा दिन गायब
रहा। कोई
खबर नहीं
कहाँ है।
मैं बार-बार कॉलेज
कैंटीन की
तरफ जाती
कि शायद नजर आ जाये या
किसी को
उसके बारे
में कुछ
पता हो।
लेकिन कुछ
पता नही
चला। शाम को
भारी क़दमों
से सोचते
हुए चुपचाप
बस स्टॉप
की ओर
चली जा
रही थी
कि अचानक
अर्जुन सामने खड़ा हो
गया। हँसते
हुए कहने
लगा, ‘मेरे
बारे में
सोचते हुए
चलोगी तो
बस के
अन्दर नहीं नीचे चली
जाओगी। मैं
भी मौत
का सामान
ही हूँ।
मुझे हमेशा
साथ ले
कर चलने
की चिंता मत
करो। धमाका
हो जायेगा।’
उस दिन
उसकी बात
पर और
उसे देख
कर मैं
हंस नहीं
पाई थी। एक
अजनबी डर
ने मन
में घर
बना लिया।
आँखों में
नाराज़गी और
आंसू दोनों
झाँकने लगे।
अर्जुन उस दिन बस
में न
जा कर
जबरदस्ती मुझे
ऑटो में
साथ ले
गया। पूरे
रास्ते मैंने
उससे बात नहीं
की। ऑटो
रुका तो
सामने पार्क
था अर्जुन
ने मुझे
वहीँ उतरने
को कहा।
बिना कुछ
कहे मैं चुपचाप
वहाँ उतर
गयी। आज पहली
बार कॉलेज
कैंटीन के
बाहर हम
एक साथ
बैठे थे।
मेरा गुस्सा
आँसुओं में
फुट कर
बह निकला।
थोड़ा शांत
होने के
बाद मैंने
उससे कहा,
‘तुम बिना
बताये ऐसे
क्यों गायब
हो जाते
हो?मन
बेचैन होने
लगता है।
बुरी आशंकाओं
से दिल
बैठा जाता
है लेकिन
ये सब
बातें तुम्हे
समझ ही कहाँ
आती हैं!’पहली बार
उसने मेरा
हाथ अपने
हाथो में
लिया। कुछ
देर हमदोनों
चुपचाप उस
लम्हे को
महसूस करते रहे।
खामोशी अर्जुन
ने ही
तोड़ी, कहा
– ‘मेधा! अब
तुम्हे इन
चिंताओं से
मुक्त होना
होगा। मेरे और तुम्हारे रास्ते अलग
होने का
समय आ
गया है।
विश्वास करो
मुझे भी
तुमसे उतना
ही प्यार है
जितना कि
तुम मुझसे
करती हो
लेकिन इस
प्यार के
लिए जो
क़ुरबानी देनी
होगी वो
मैं नहीं दे
सकता। जितना
प्रेम तुम्हारे
लिए है
ठीक उतना
ही प्रेम
मैं उन
लोगों से
भी करता
हूँ जो
समाज के किसी दर्जे में दर्ज
नहीं होते,
हमेशा से
शोषित, वंचित
और पल-पल मरने
को मजबूर
हैं। मुझे उनके पास
जाना होगा
उनके साथ
खड़ा होना
होगा। उनके
लिए लडाई
लड़नी है।
उनके जीवन के लिए संघर्ष करना
है। इन
सबके साथ
मैं तुम्हे
ले कर
नहीं चल
सकता। पता
नही कब
कौन सी गोली मुझे आ कर लगेगी और
उस दिन
सब खत्म।
तुम्हे देने
के लिए
मेरे पास
कुछ भी
नहीं होगा। न घर न संसार
न ख़ुशी...
कुछ भी
नहीं। मैं तुम्हे कभी भी सुखी
वैवाहिक जीवन
का वादा
नहीं कर
सकता। बल्कि
कहना चाहता
हूँ तुम
पढाई ख़त्म कर के
अपना अच्छा
भविष्य बनाना
और एक
अच्छे लड़के
से शादी
भी कर
लेना। चाहो तो इसे भी मेरा
आदेश ही
समझ लो।
मुझे अब यहाँ से चले जाना
होगा। एक
नये लक्ष्य,
नई जगह,
नये नाम
और पहचान
के साथ।
आज के बाद मेरा तुमसे कोई
सम्पर्क नहीं
होगा। जानने
की कोशिश
भी मत
करना। मर
गया तो
शायद टीवी और अख़बार
के ज़रिये
तुम तक
खबर ज़रूर
पहुँच जाएगी।
तुम्हे छोड़ कर जाने
के लिए
तुम मुझे
माफ़ कर
सकोगी न
मेधा!
बहते आंसुओं के साथ अर्जुन की सारी बातें सुनती रही
थी। अंत में बस इतना ही बोल पायी, ‘तुमने कभी शादी का वादा नहीं किया और न ही कभी
ऐसे सपने दिखाए जिसके लिए माफ़ी मांगो। तुम्हे तुम्हारे कर्तव्य के रास्ते से मैं
कभी मुड़ने नहीं कहूँगी। जैसा तुमने कहा वैसा ही होगा।’ वो शाम ही हमारे रिश्ते की
आखरी शाम थी। आज 25 साल बाद फिर इस स्टेशन पर उसके इंतजार में बीते दिनों की याद
के साथ मैं.... लेकिन अर्जुन अभी तक आया क्यों नहीं! वो भूलेगा नहीं। पूरा विश्वास
है मुझे, फिर क्या हुआ? ज्यादा समय नहीं लगा मुझे इन सवालों के जवाब पाने में।
अगली सुबह के अख़बार के पहले पन्ने पर ही मेरे सारे सवालों के जवाब थे। सरकार के
लिए मोस्ट वांटेड नक्सली अर्जुन पुलिस और खुफिया विभाग की सक्रियता से पकड़ा गया
था। लिखा था कि प्रारंभ में उदारपंथी नक्सली विचारधारा से प्रभावित अर्जुन बाद में
प्रशासन की दमन नीति के प्रतिकार में उग्रपंथी मार्ग की ओर मुड़ गया। माना जाता था
कि सेना और पुलिस की टुकड़ियों पर हमले, सुदूरवर्ती इलाक़ों को जोड़ने वाले पूलों,
सड़कों आदि को बम ब्लास्ट आदि से उड़ाने जैसी घटनाओं की योजना उसी के दिमाग की उपज
थी। कहा जा रहा था कि गोविंदपुर स्टेशन पर भी वह अपनी किसी आगामी योजना की रेकी के
लिए आने वाला था, जिसकी सूचना पुलिस को किसी मुखबिर से मिल गई और समय रहते उसे
गिरफ्तार कर लिया गया। मैं जानती थी, और बातों में चाहे जितनी सच्चाई हो, यह बात
झूठी थी। वो गोविंदपुर स्टेशन तो... वरना वो यहाँ बिना किसी सुरक्षा तैयारी के
नहीं आता। खैर, अपने तमाम कार्यों के बीच भी वह अपना वादा नहीं भूला तो इतना तो तय
है कि उसके दिल के किसी कोने में मृदुल भावनाएँ, संवेदनाएँ आज भी जीवित हैं। वो
उसे नहीं भूला अभी तक और न एक-दूसरे से
किए वादे को ही। हाँ, इस वादे के पूरे होने की मियाद थोड़ी लंबी जरूर हो गई है।
अपनी सजा पूरी कर जब वो बाहर निकलेगा, तब शायद अपना रास्ता बदल गरीबों-शोषितों की
सहायता के लिए वो शायद कोई और राह तलाशे! उस राह पर चलते, अपनी मंजिल पर पहुँचते
उसके चेहरे पर वही मुस्कान फिर वापस आयेगी जो मेरे मानस पटल में पिछले 25 वर्षों
से छपी हुई है। उसकी इस मुस्कान को फिर एक बार देखने का मैं इंतजार करूँगी... मैं
उस से फिर मिलूँगी। ये मेरा वादा है- मुझसे, उसकी यादों से, उसके भरोसे से... इस बार
कोई समय सीमा नहीं रखी है, मगर खुद से ही किया है फिर एक मुलाक़ात का वादा !