जैसा देव वैसी पूजा (कहानी )- संगीता सिंह भावना---
जानकी का अल्हड़पन पूरे घर के लिए परेशानी का सबब बना हुआ था,मुंहफट भी ऐसी की बड़े-बड़ों को जलील कर देती पर इसका लेशमात्र भी शिकन उसके चेहरे पर न झलकता | माँ नारायणी समझा-बुझाकर थक गई थी,पर जानकी पर उनकी बातों का कोई असर नहीं होता | उसकी बदतमीजियों के किस्से दिनों-दिन बड़ते जा रहे थे | एक बार तो हद ही हो गई,जानकी अपने मामा की लड़की की शादी में सम्मिलित होने माँ के साथ अपने ननिहाल आई थी ,सारा घर शादी के उत्सव में डूबा था और जानकी का शरारती मन कुछ अलग ही खिचड़ी पकाने में मशगूल....! हुआ यूँ कि जानकी खुद अपनी ममेरी बहन की शादी के लिए लाये जोड़े को पहन अपने होने वाले जीजा से शादी करने की जिद ठान ली | युवती होने पर विवाह की इच्छा होना स्वाभाविक था,पर वह तो बस उसके शान-शौकत को देखकर उससे शादी के लिए दीवानी हुए जा रही थी | उसके इस हरकत से घर में कोहराम मचा हुआ था,पर जानकी पर तो जैसे गौरव के बड़े घर,गाड़ी,नौकर चाकर, और उसके साहबाना अंदाज का भूत सवार था | गौरव के जिस शाही अंदाज से वह प्रभावित थी वह उसकी भूल थी, न तो गौरव इतना अधिक संपन्न था और न ही उसके आगे-पीछे नौकर चाकर ! शादी-विवाह में तो हर आदमी अपनी औकात से अधिक ठाट-बात दिखाता है अगर किसी की ऑंखें उसे लखपति समझ बैठे तो उसकी अपनी गलती होगी | हाँ इतना जरूर था कि सरकार की नौकरी थी जिससे गुजर -बसर में कोई तकलीफ नहीं होना था ऐश्वर्य की चमक और बिभूतियों का साम्राज्य भी एक छलावा ही है ,जो मनुष्य के प्रति मनुष्य की ही सहानुभूति ख़त्म कर देती है | जानकी के साथ भी ऐसा ही कुछ था ,वह गौरव के ठाट-बाट को देख अपनी सुध-बुध खो बैठी थी और अपनी ही बहन श्रद्धा के प्रति जलन की भावना प्रबल हो उठी, अगर अपनी हद में रहे तो जलन बुरी चीज नहीं होती ,पर यही जलन अगर जूनून में बदल जाये तो खैर नहीं ईर्ष्या और लालच जब एक ही साथ किसी इंसान में घर कर जाती है तो उसका अंत होना तय है | घर के लोगों ने काफी समझा-बुझाकर उसे उस बेकार की जिद के लिए रोक तो लिया ,पर जानकी का अंतर्मन अन्दर ही अंदर परेशान था | शादी तो गौरव और श्रद्धा की होनी थी सो हो गई पर जानकी के मन में गौरव को न पाने की टीस बरकरार रही ,शादी के बाद वह माँ के साथ ननिहाल से वापस तो आ गई पर उसका शातिर मन गौरव के साथ के सपने देखने लगा | अब वो हमेशा इस फ़िराक में रहने लगी कि कैसे भी करके श्रद्धा की जगह लेनी है ,सो उसने अपनी माँ से बताया कि उसका मन थोड़ा उचट गया है और फिर श्रद्धा गौरव के ऑफिस चले जाने के बाद बिलकूल अकेली भी तो रह जाती होगी सो क्यों न कुछ दिनों के लिए श्रद्धा को भी कंपनी दे दिया जायेगा और मेरा मन भी बहल जायेगा | हालाँकि नारायणी को एकाएक का उसका प्लान कुछ जंच नहीं रहा था,और उसका मन भविष्य की परेशानियों को लेकर सशंकित हो उठा ,पर जानकी ने समझा-बुझाकर अंततः उसे मना ही लिया | चलते-चलते माँ ने दोनों हाथ जोड़कर जानकी को समझाया ,कि बेटा तुम कोई भी काम ऐसा मत करना जिससे कि श्रद्धा की शादी-शुदा जिन्दगी पर आंच आए,तब जानकी ने बड़ी ही बेपरवाही से जवाब दिया .....क्या माँ आप भी हर वक्त बुरा ही सोचती हैं कभी मेरे लिए अच्छा भी तो सोच लिया कीजिये आखिर बेटी हूँ मैं आपकी ! और फिर उस गौरव में रखा ही क्या है ,उस जैसे तो ना जाने कितने मेरे आगे पीछे मंडराते रहते हैं | देखना एक दिन तुम्हारी बेटी राजकुमारी की तरह रहेगी |इधर श्रद्धा और गौरव शादी के उस दिन की बात को बिलकूल भूल चुके थे और प्यार व् समर्पण से अपनी गृहस्थी रुपी गाड़ी चला रहे थे कि एकाएक से जानकी का आना उन्हें अच्छा तो नहीं लगा पर घर आये हुए मेहमान को आदर देना अपने संस्कार को प्रदर्शित करता है | सो उन दोनों ने जानकी का खुले दिल से स्वागत किया,पर श्रद्धा का मन अनजानी आशंका से घबरा उठा तब गौरव ने उसे बड़े ही प्यार से समझाया.....पगली ! तू तो हमेशा मुझे हिम्मत बंधाती रहती है,और तू ही ऐसे कमजोर पड़ जाएगी तो मेरा क्या होगा | शादी कोई गुड्डे-गुड्डी का खेल थोड़े है,जो हवा के मामूली से झोंके से बिखर जाये ,खुद को संभालो और इन बेवजह की बातों को नजरअंदाज कर एक बेहतर जीवन की कल्पना करो सब अच्छा होगा ,मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ | गौरव के स्नेहसिक्त शब्दों से श्रद्धा को आत्मबल तो जरूर मिलता पर अपने रिश्ते को लेकर संशय तो जायज था,कभी-कभी वह सोचती.....औरतें साधारणतः वही खोजती हैं जिस चीजों का उनके जीवन में आभाव हो और सामने वाला इंसान उससे परिपूर्ण ...! जानकी अपने साथ भारी भरकम सूटकेस लेकर आई थी,मालूम पड़ता है ज्यादा दिन ठहरने के इरादे से आई है | बेड तो घर में एक ही था,नतीजतन रात में वह सोफे को पलंग बना कर सो जाती और पूरे दिन तो पलंग पर अपना साम्राज्य बनाये रखती ,जब कभी श्रद्धा उससे पलंग शेयर करती वह अनगिनत नसीहतें उसे सुनाती | बाथरूम में भी उसका ब्रश,कंघा,क्रीम,पेस्ट रसोई में उसके पिन पाउडर,सैंट,नाईट गाउन, स्लीपर मैले कपड़े,सिंक में बिन धुले कप,प्लेटें सभी ने बड़ी ही अधिकारिक रूप से अपने साम्राज्य जमा लिए थे | गौरव की गैरहाजिरी में जानकी श्रद्धा को कोसती और डराती रहती,पर जैसे ही गौरव घर आता उसके शब्दों में शहद घुल जाते और वह श्रद्धा के आगे-पीछे मदद को मंडराती रहती और श्रद्धा के काम करने से मना करने पर बड़े ही नाटकीय ढंग से कहती ......देखिये न जीजाजी ,दीदी तो मुझसे कोई काम ही नहीं करवाती,आखिर मुझे भी तो ससुराल जाकर यह सब करना ही होगा तो क्यों न इसका अभ्यास कर ही लूँ | श्रद्धा और गौरव दोनों ही उसके नाटक से बखूबी परिचित थे,जानकी का शातिर दिमाग और साथ ही ऊँची महत्वाकांक्षा उन दोनों से छुपी नहीं थी ,उसके ऐश्परस्ती के जो सपने थे वे साधारण जिन्दगी से कभी पूरे नहीं हो सकते थे,लेकिन वह अपने सपनों को पूरा करने के लिए अपनी बहन का ही घर उजाड़ना चाहती थी यह बात उनके गले नहीं उतर रही थी | श्रद्धा को वह दिन भी याद आता , जब जानकी ने चार साल पहले रवि नामक इंसान से प्यार का ढोंग रचाकर उसके सारे पैसे ऐंठ लिए थे और जैसे ही उसे पता चला कि रवि की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है तो उसके ऊपर छेड़खानी का आरोप लगाकर उसके खिलाफ केस भी दर्ज करवा दिया था | दरअसल जानकी का असली मकसद उसे धोखा देना ही था,वह हमेशा नये शिकार की तलाश में रहती थी ,जिनकी माली हालत अच्छी नहीं होती थी वहां वह कोई लांछन लगाकर रिश्ते को ख़त्म कर लेती थी | श्रद्धा ने गौरव से उन सारी घटनाओं का जिक्र कर रखा था,जिससे गौरव को जानकी को समझना आसान हो गया था ,और वह भली-भांति जनता था कि ऐसा ही कोई लफड़ा वह उसके साथ भी करने के इरादे से आई थी | सो वे दोनों ही काफी सतर्क थे,और मन ही मन जानकी को सबक सिखाने की भी तरकीब तलाश रहे थे | इधर जानकी भी पूरे तन मन से गौरव को अपने जाल में फंसाने में मशगूल थी,पर अफ़सोस गौरव उसके इस शातिराना अंदाज को भांप गया था |
एक शाम जब गौरव ऑफिस से घर आया तो श्रद्धा बुखार से तप रही थी,जानकी ने उसे बताया कि मैंने कई बार आपको फोन करने की कोशिस किया पर श्रद्धा ने यह कहकर उसे रोक दिया कि ..गौरव को परेशान न करे उसने दवाई ले लिया है ,थोड़ी देर में उसे आराम भी हो जायेगा | बुखार के कारण श्रद्धा कमजोर सी हो गई थी,सो जानकी ने उसे बड़े ही प्यार से समझाया कि वह घर के काम की चिंता न करे आखिर उसकी बहन किस दिन काम आयेगी...? ऐसा कह वह खाने की तैयारी करने लगी और मन ही मन गौरव के पास बार बार जाने का बहाने खोजने लगी | गौरव इस बात से बिलकूल अंजान था,और जब उसने देखा कि श्रद्धा का बुखार थोड़ा कम हुआ तो उसकी ऑंखें झपकने लगी सो उसे सुलाकर टी.वी चलाकर कुछ देखने लगा | इधर जानकी को तो इसी अवसर की तलाश थी ,सो उसने बड़े ही नाटकीय ढंग से बोला,जीजाजी खाना तैयार है आप कहें तो श्रद्धा को भी जगा दूं ,पर गौरव ने यह कहकर उसे मना कर दिया कि बड़ी मुश्किल से तो बुखार में नींद आती है सो उसे सोने दो | जानकी की तो जैसे मुंहमांगी मुराद पूरी हो गई ,वह गौरव के लिए खाना निकालकर ले आई तो गौरव ने शिष्टतावश पूछ लिया कि तुम्हारा खाना किधर है...? तुम भी अपना खाना ले आओ ''
''फिर रोटियां कौन बनाएगा ....? '' जानकी ने दूसरी रोटी तवे पर डालते हुए कहा | और बड़े ही शरारती अंदाज में बोली.....छोटी ही सही ये कुर्बानी क्या मेरे दिल की मुहब्बत नहीं है ....? ऐसे ही ना जाने कितनी छोटी-छोटी कुर्बानियां दिन भर में कितनी ही बार मैं देती हूँ आपके लिए,पर आप हैं कि समझते ही नहीं | गौरव जानकी के शब्दों का अर्थ बखूबी समझ रहा था,फिर भी उसने कहा ,''मुझे रोटियां बनानी आती होती तो मैं पहले तुम्हें बना कर खिलाता ,सुनो तुम सारी रोटियां बना लो हम साथ में खायेंगे |''अगर आदमी प्यार में थोड़ी इज्जत भी मिला दे तो औरत को पक्का यकीं हो जाता है कि सामने वाला व्यक्ति उसके प्यार के जाल में फंसने वाला है ,कितनी कमाल की होती है ये औरत जात ,थोड़ा सा इशारा मिलते ही सीधे दिल में उतरने लगती हैं | जानकी के मन के अंदर तक एक अजीब सी हलचल रौनक बन धड़कने लगा ,और एक अजीब सी कशिश से गौरव को निहारने लगी | कितना कमजोर हो जाता है आदमी उस क्षण में जब एक नारी का नेह निमंत्रण उसे मिलता है और वह भीतर-ही भीतर पिघलने लगता है , गौरव के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था , उसके पूरे बदन में एक अजीब सी सनसनाहट दौड़ रही थी,उसके कान गरम होने लगे थे पर अगले ही पल उसे जानकी की शातिरता का ख्याल हो आया और वह खुद को संभाल लिया | ये मन भी न अपने रेतीले रेगिस्तान में कैसे-कैसे लम्हों की मरीचिका बनाने लगता है,कैसे -कैसे सपने देखने लगता है न ! गौरव ने ध्यान से जानकी को देखा ,बाल खुले थे,और आँखों में गजब की चंचलता जैसे नदी का पानी पूरी वेग से उमड़ने को तैयार हो | गौरव का मन एक बार फिर भटकने लगा था,उससे नहीं खुद से ,भटकाव तो हमेशा खुद से होता है न कि सामने वाले से | गौरव को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे ...? एक तरफ जानकी का मौन निमंत्रण दूसरी तरफ श्रद्धा का उसके प्रति अटूट विश्वास ! अगर भूल से भी श्रद्धा को उसके मन में उठने वाले हलचल का जिक्र हो जाये तो उसका मायके जाना तय | अरेंज मैरेज में बीवी के मायके जाने के चांस अधिक होते हैं | जब आदमी किसी निष्कर्ष पर न पहुंचे तो उसे सो जाना चाहिए ,सो उसने टी.वी को बंद किया और सोने जाने लगा अचानक उसने पीछे मुड़कर देखा तो जानकी उसे ही देखती नजर आई ,सो उसने गुड नाईट कहते हुए अपने कमरे में प्रवेश किया | श्रद्धा अभी भी बुखार से तप रही थी ,गौरव भी उसके बगल में लेट गया और सोने की कोशिश करने लगा पर नींद तो आँखों में उतरने से रही और विचारों का मंथन लगातार प्रहार किये जा रहा था | गौरव किसी ऐसे निष्कर्ष की तलाश में था जिससे जानकी फिर कभी किसी को अपनी शातिरता का निशाना ना बनाये और एक अच्छी जिन्दगी की शुरुवात करे | इधर जानकी भी अपने नये शिकार की तलाश में मन ही मन विचारों की अच्छी माला गूंथने में लगी थी | कभी -कभी इंसान भी न कुछ पाने की कोशिश में अपना सर्वस्व दाव पर लगा देता है और अंत में खाली हाथ ही रह जाता है, इस समय कुछ ऐसी ही हालत जानकी की भी थी ,वह किसी भी सूरत में गौरव को पाना चाहती थी | उसने श्रद्धा की तबियत जानने के बहाने ही उनके बेडरूम में गई ,और जब उसने देखा कि श्रद्धा बेसुध पड़ी है तो बड़ी ही कातर नजरों से गौरव की ओर देखने लगी तो गौरव जो अब तक उसके निमंत्रण से अनभिग्य नहीं था वह बोला,''देखो जानकी ...मन की दुर्बलता का दुनियां में कोई इलाज नहीं है,कामनाओं का क्या है वह तो जिस वेग से शुरू होता है उसी वेग से उतर भी जाता है और बाद में सिवाय पछतावे के कुछ भी नहीं बचता है | भूल जाओ जो अबतक तुमने किया ,और विवाह कर एक अच्छी जिन्दगी की शुरुवात करो| मेरी नजर में मेरा एक दोस्त है जो बहुत पैसेवाला तो नहीं पर एक बेहतर इंसान है ,तुम कहो तो मैं उससे शादी की बात चलाऊँ....? आखिर ये जिन्दगी भी कोई जिंदगी है ,,कब तक यूँ ही भटकती और छलती रहोगी खुद को | पैसा तो हाथ का मैल है और यह शरीर जिसके भरोसे तुमने आजतक खुद को छलते रही वह भी एक दिन ढल जायेगी | गौरव ने कितने संक्षेप में कितनी स्पष्टता से इतनी बड़ी बात कह दी थी , जहाँ तक जानकी ने जाना सुना था,वह तो यही था कि पुरुष के भीतर एक जानवर होता है,वह नारी के रूप को नहीं बल्कि उसके शारीर की कामना करता है | वह तो नारी ही है जो अपने निषेध से पुरुष को रोके रखती ,नारी के प्रति नकार तो उसने पुरुष में कभी भी नहीं देखा था मर्यादा का चुनाव तो सदा से स्त्रियों के गुण हैं ,पर यहाँ तो ठीक उल्टा ही हो रहा है | बड़ी रात गए तक वह असमंजस में खुद से उलझती रही ,पर कोई ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाई,फिर अगले ही पल सोचने लगी कि गौरव अगर पुरुष होकर भी सागर के सामान अपनी मर्यादाओं को नहीं छोड़ता,तो मैं ही इतनी आतुर क्यों हूँ ....? क्या यह सिर्फ पैसों की भूख है या फिर शरीर की जरुरत ....? मैं क्यों न इसकी गहराई से ही संयम सीखूं ,और एक नये जीवन को विस्तार दूं ,व्यर्थ ही आज तक भागती-भटकती शायद बहुत दूर निकल आई हूँ ,तो क्यों न लौट चलूँ और एक बेहतर चरित्र का निर्माण करूँ | जानकी को संतुष्टि का यह स्वप्न बहुत ही सुखद प्रतीत हुआ और ऐसा लगा जैसे उसके मन से कोई बहुत बड़ा बोझ उतर गया