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मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

      मन मन्थन - अंत भला तो सब भला (एक मौलिक चिंतन)

                                                                                                                    प्रियंवदा अवस्‍थी

यथार्थ जीवन और पूर्वनिर्धारित जीवन दोनों ही एक नियत मार्ग पर विषम दिशा में बहने वाली दो धाराये हैं ,एक सांसारिक व्यक्ति को आगे को ले जाती है तो दूसरी सामने से आकर हमे कुछ न कुछ सबक बताती सिखलाती हुई पीछे को निकल जाती है ।सो एक ही पथ के अनुगामियों की आमने सामने आकर जब तब परस्पर टकराहट हो जाना भी स्वाभाविक प्रक्रिया है इससे कब तक मुंह चुरायेंगे हम इंसान ।जीवन में घटित हर वह घटना दुर्घटना जिसे मैं मेरे अनुकूल करने में अक्षम हूँ सब मेरे प्रारब्ध कर्म के ही परिणाम हैं, इस बात को समय अपने साथ चलाते चलाते स्वीकारना सिखला देता है। इस सफर में क्या खोया पाया क्या दिया लिया समस्त हानि लाभ को इकठ्ठा कर इन सबका हिसाब किताब भले ही करके हम अपने मन को व्यथित करें पर इससे हमारा कुछ भला नही होता उलटे अपनी ही ऊर्जा का क्षरण करते रहते हैं हम घुट घुट कर ।भावनाओं से ही तो हम इंसान कहलाये हैं और जब किसी भी वस्तु व्यक्ति या स्थितिवश भावनाएं दूषित होने लगे तो समझो आगे फिर घोर अंधकार ही है । स्थिति को बदलने की क्षमता जब आपमें न बचे तब आपको वो विकल्प चुनना चाहिए जिससे आप आगे का सफर सुगमता से कर सकें । कदचित यह विकल्प अध्यात्म से हमें जाकर जोड़ता है ।सम्बन्ध का अर्थ है समान रूप से बंधे रहना ,एक तरफा कोई सम्बन्ध लम्बी दूरी नही तय कर सकता इनकी दृढ़ता के लिए अन्यान्य धरातलों पर सामन्जस्य जरूरी है।आप किसी की प्रकृति नही बदल सकते किन्तु स्वतः साम्य कर परिस्थितियां जरूर अनुकूल बना सकते हैं ।रिश्तों को बनाये बचाये रखने के लिए दो व्यक्तियों का उनकी आपसी प्रकृति को समझते हुए, स्वीकारते हुए उनके मध्य सामन्जस्य बिठाना एक सुंदर विकल्प होता है जो परस्पर सम्पादित है जिससे कोई आपसी खींचतान नही हो सकती, और सब कुछ मर्यादानुकूल तथा सम्यक ढंग से चलता रहता है ।मौसम की तरह ये भावनाएं भी तो समय समय पर अपने रंग ढंग बदलती रहती हैं पर यदि आपमें सामन्जस्य करने का जज्बा मजबूत है तो बदलते मौसम और वक्त वक्त की भावनाओं के उतार चढ़ाव कभी भी किसी के लिए दर्दनाक मन्ज़र नही बनते ।जिन्हें भी प्रकृति के नियमानुसार बदलते मौसमों के मिजाज़ का दिल से अहसास है वे हर मौसम का अपने अंदाज़ से लुत्फ़ उठाते है पर जिन्हें इनका अस्तित्व महसूस करते हुए भी कोई कोमल अहसास न जगे और वे सिर्फ एक ही लीक एक ही धुरी पर चलने के आदी हों उनको तो कोई भी किसी भी प्रकार का परिवर्तन अच्छा नही लगेगा और यही मन की अशांति का मूल कारण भी बनेगा।व्यक्ति व्यक्ति का एक ही स्थिति पर चिंतन भिन्न अवश्य ही हो किन्तु सार्वभौमिक सत्य को न काटते हुए यदि व्यक्ति जीवन जीने के सुंदर सलीके निकालता है तो भिन्न विचार होते हुए भी वह सर्वमान्य ही होंगे और ऐसे सम्बन्ध सम्मानित भी होते हैं।
                  ये मेरा चिंतन है आपका भी हो ऐसा जरूरी नही मुद्दा ये कि अंत भला तो सब भला । .......................( लेखि‍का करुणावती साहित्‍य धारा पत्रिका की सलाहकार हैं ।)

6 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. ब्लॉग आने और टिप्पणी के लिए आभार

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    2. विचार प्रवाह पर उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए धन्यवाद

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  2. सादर धन्यवाद आदरणीया मन मन्थन को जन जन तक पहुंचाने के लिए ।अवश्यमेव हम पहुंचेंगे

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